पता नहीं अब रॉब हैवर्ड क्या कहेंगे! चुनाव विश्लेषक की अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा कर, बड़े आत्मविश्वास से इंग्लैंड के चुनाव के बारे में उन्होंने जो तमाम भविष्यवाणियां की थीं, वे सब धूल चाट रही हैं और प्रधानमंत्री डेविड कैमरन फिर से अपनी जगह पर काबिज हो गए हैं! रॉब हैवर्ड अब शायद समझ पा रहे होंगे कि क्रिकेट मैच और चुनावी मैच में भविष्यवाणियां करना सयानों का काम नहीं है।
चुनाव जीतना अब कितना अर्थहीन होता जा रहा है, यह कोई हम भारतीयों से पूछे! हमने अपनी लोकसभा के लिए वोट देते वक्त क्या-क्या प्रतिमाएं नहीं तोड़ी थीं! राजनीति के स्वघोषित पंडितों के सारे अनुमान धरे रह गए थे तो इसलिए नहीं कि उनके गणित में कुछ गड़बड़ थी। सच तो यह है कि मतदाता जब वोट देने के नए प्रतिमान गढ़ता है तभी-के-तभी उसे पढ़ सकने का शास्त्र अभी तक बना नहीं है। इसलिए पंडित पीछे रह जाते हैं, लोकतंत्र की पोथी लिखने वाला मतदाता आगे निकल जाता है। नरेंद्र मोदी जैसे बहुमत से जीते, उसके बाद किसने सोचा था कि साल भर निकलते-न-निकलते इस सरकार का कुंदन उतर जाएगा और पीतल झलकने लगेगा? लिख तो अज्ञेय बहुत पहले गए थे कि बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है, लेकिन मोदी ने अपना बासन आप ही इतना घिसा कि उसका मुलम्मा छूट गया और उसमें से राहुल गांधी झलकने लगे!
फिर देखें हम दिल्ली की विधानसभा का चुनाव! क्या बहुमत मिला था अरविंद केजरीवाल को कि मोदी की जीत भी फीकी पड़ गई थी! क्या सपने थे, क्या माहौल था और आम आदमी पार्टी के साथ कैसे-कैसे चमकीले युवा थे! लगता था कि आसमान की तरफ हाथ बढ़ाया तो इनके लिए आसमान झुक आएगा। लेकिन हुआ क्या कि सामने आसमान जैसा कुछ बचा ही नहीं। बचे रह गए लकड़ी की बेजान कुर्सी से चिपके लोग! वैसे लोग जिन्हें भारतीय राजनीतिक प्रणाली से बुहार कर बाहर करने की जिद में से ‘आप’ का जन्म हुआ था।
मोदी और केजरीवाल की जीत बताती है कि जीत कर भी हारा कैसे जाता है! इसी आईने में हम कैमरन की जीत को भी देखेंगे।
मोदी और केजरीवाल की जीत बताती है कि जीत कर भी हारा कैसे जाता है! इसी आईने में हम कैमरन की जीत को भी देखेंगे।
इंग्लैंड में अपना चुनाव जीतने के बाद डेविड कैमरन ने कहा कि यह उनकी सबसे मीठी जीत है! ठीक कहा उन्होंने, क्योंकि जहां जीत पर ही संकट था वहां बहुमत वाली ऐसी शानदार जीत मिले, तो मीठा लगता ही है। 1992 में, जॉन मेजर के बाद, यह पहली टोरी सरकार है जिसने बहुमत पाया है। तो सभी पूछ रहे हैं कि इस चुनाव परिणाम के साथ इंग्लैंड में क्या बदलेगा? मेरा जवाब है: कुछ भी नहीं बदलेगा! हमारे प्रधानमंत्री ने जीत की बधाई देते हुए, कैमरन का चुनावी नारा ही उन्हें लिख भेजा: फिर एक बार कैमरन सरकार! प्रधानमंत्री ने यह सोचा या चाहा नहीं होगा, लेकिन एकदम सच पर हाथ रख दिया उन्होंने। उनका भेजा यह नारा ही बताता है कि फिर एक बार वही सरकार, तो वही नीतियां, वही व्यापार! इंग्लैंड के लिए यह एक बांझ परिणाम है।
अपने राजा-रानी के यहां संतान होने की खुशी में आज भी झूम-झूम उठने वाला यह मुल्क अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अजीब-सी जगह रखता है। अपने बहुत छोटे आकार की तुलना में इंग्लैंड आज भी अपनी विशाल औपनिवेशिक छाया देख कर जीता है हालांकि अब उसके उपनिवेश कहीं बचे नहीं हैं। बची हैं बस छायाएं ही जिनका कद कभी सच्चा नहीं होता है। इंग्लैंड संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है और विश्व के परमाणुसंपन्न राष्ट्रों में उसकी गिनती होती है। लेकिन बम से दम का कोई नाता नहीं है, यह बताते हुए अंतरराष्ट्रीय जगत में इंग्लैंड की कुल महत्ता मात्र इतनी बची है कि वह अमेरिकी खेमे का सबसे भरोसेमंद सदस्य है- अमेरिका का सबसे पालतू देश!
इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड का यह महासंघ अगर आज सोचने पर मजबूर हुआ है कि उसे महासंघ बने रहना चाहिए या नहीं, तो इसके पीछे लंबे समय से ठिठका हुआ ब्रिटिश समाज और उसकी दिशाहीन कमजोर सरकारें हैं। इधर कई बार तो जानकार पूछते भी हैं कि इंग्लैंड की राजधानी वाशिंगटन में है या लंदन में? कैमरन की पहली सरकार को, हाल के वर्षों में आई इंग्लैंड की सबसे कमजोर सरकार कहा जा रहा था। वह कमजोर इसलिए नहीं थी कि उसके पास बहुमत नहीं था, वह कमजोर इसलिए थी कि उसके पास कोई मत नहीं था। कैमरन आगे भी इसी अवस्था में रहेंगे क्योंकि मत पहली या दूसरी बार सत्ता मिलने से नहीं, अपने किसी मत की स्थापना के लिए सत्ता में आने से बनते और विकसित होते हैं।
मार्गरेट थैचर संभवत: इंग्लैंड की आखिरी प्रधानमंत्री थीं जिनके पास कोई मत था और जिस मत की स्थापना के लिए वे जूझ पड़ी थीं। निजीकरण के उनके एजेंडे की वजह से ही यह संभव हुआ कि इंग्लैंड उस वक्त के आर्थिक डांवांडोल को संभाल पाया था।
हमारी आजादी के वक्त सामाजिक विद्वेष के जैसे बीज अंगरेज हमारे समाज में बो गए, अपने यहां भी उन्हें वैसे ही लंबे सामाजिक विद्वेष से जूझना पड़ रहा है। स्कॉटलैंड महासंघ से अलग होने की मांग करता रहा है। कैमरन इस मांग को स्वीकार करने को तैयार रहे हैं। लेकिन कुछ महीने पहले ही, जब जनमत संग्रह हुआ तो कैमरन की राय पैंतालीस फीसद के मुकाबले पचपन फीसद लोगों द्वारा खारिज कर दी गई।
हमारी आजादी के वक्त सामाजिक विद्वेष के जैसे बीज अंगरेज हमारे समाज में बो गए, अपने यहां भी उन्हें वैसे ही लंबे सामाजिक विद्वेष से जूझना पड़ रहा है। स्कॉटलैंड महासंघ से अलग होने की मांग करता रहा है। कैमरन इस मांग को स्वीकार करने को तैयार रहे हैं। लेकिन कुछ महीने पहले ही, जब जनमत संग्रह हुआ तो कैमरन की राय पैंतालीस फीसद के मुकाबले पचपन फीसद लोगों द्वारा खारिज कर दी गई।
बहुमत ने महासंघ में बने रहने का समर्थन किया। कैमरन को यह स्थिति स्वीकार करनी पड़ी। लेकिन स्थिति फिर करवट लेती है और कैमरन को दूसरा बड़ा धक्का लगता है- अभी के चुनाव में, जहां इंग्लैंड के मतदाताओं ने कैमरन को 650 सदस्यों वाले सदन में, जहां 326 सीटों से बहुमत बनता है, 331 सीटें दे डालीं, वहीं स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी को 59 में से 56 सीटें देकर यह भी जता दिया कि स्कॉटलैंड को एक नए देश के रूप में उभरने से कोई रोक नहीं सकता है। कैमरन दोनों तरफ से फंस गए। वे अपना चुनावी वादा पूरा करते हैं और स्कॉटलैंड को अलग होने देते हैं तो देश टूटता है; नहीं होने देते हैं तो अलगाववादी ताकतों को खुल कर खेलने का मौका मिलता है। दोधारी तलवार-सा यह पहला खतरा है जिससे कैमरन को जूझना है।
ऐसा ही एक सवाल यूरोपीय संघ से अलग होने का भी है जिसकी पैरवी कैमरन करते रहे हैं। इंग्लैंड यूरोपीय संघ का सबसे वजनदार सदस्य है और इससे उसकी अंतरराष्ट्रीय मौजूदगी भी मजबूत बनती रही है। फिर कैमरन संघ से अलग क्यों होना चाहते हैं? कैमरन सरकार को ऐसा लगता है कि संघ अपने सदस्य-देशों के आंतरिक मामलों में कुछ ज्यादा ही दखलंदाजी करता है। अगर यह सच है तो इसे रास्ते पर लाने का काम कौन करेगा? यूरोपीय संघ में किसी भी देश को कोई विशेषाधिकार तो मिला नहीं है। कैमरन चाहें तो यह पूरा मामला संघ की अदालत में फिर से पेश किया जा सकता है और सबकी सुविधा का रास्ता निकाला जा सकता है ताकि कोई किसी के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप न करे। यूरोपीय संघ छोड़ देना समस्या को सुलझाता तो नहीं है।
दरअसल, इंग्लैंड की उलझन यह है कि वह संघ के हर सदस्य-देश के आंतरिक मामलों में पूरी दखलंदाजी करता है और उसका यह अधिकार बना रहे, यह भी चाहता है, लेकिन दूसरे भी इस अधिकार के अधिकारी रहें, यह वह नहीं चाहता। यूरोपीय संघ कैमरन को कोई विशेषाधिकार देने को तैयार नहीं है। जानकार कह रहे हैं कि अगर इंग्लैंड संघ से निकलता है तो उसे विदेश-व्यापार में चार सौ अरब यूरो का नुकसान हो सकता है।
अब इंग्लैंड कोई अमेरिका या चीन तो है नहीं कि ऐसे आर्थिक धक्के बर्दाश्त कर ले और चेहरे पर शिकन भी न आए! तो फिर लोग सवाल पूछ रहे हैं कि यूरोपीय संघ से अभी निकलना सरकार की पहली प्राथमिकता क्यों है? कोई साफ जवाब नहीं दे पा रहे हैं कैमरन।
इंग्लैंड की आर्थिक कुंडली लिखने में भारत की एक अनोखी स्थिति है। इंग्लैंड में पूंजी निवेश करने वाले सबसे बड़े देशों की सूची में भारत तीसरे नंबर पर आता है। इंग्लैंड में भारतीयों की सात सौ से अधिक कंपनियां काम करती हैं। ये कंपनियां इंग्लैंड में रोजगार देने वाली दूसरी सबसे बड़ी एजेंसी हैं। अकेले लंदन में, पिछले पांच सालों में भारतीयों ने 1.3 अरबपौंड का निवेश किया है और साढ़े तीन हजार नए रोजगार खड़े किए हैं। अब सवाल है तो यह कि प्रवासियों के बारे में कैमरन क्या रुख लेंगे? आव्रजन (इमीग्रेशन) कानून को सख्त करने की बात करने वाले कैमरन क्या ऐसी स्थिति में हैं कि भारतीयों को धंधा बंद कर, चले जाने को कहें?
अपनी चुनावी सभाओं में वे कहते रहे कि आव्रजन कानून चाहे जैसा बने, उसमें प्रतिभावान भारतीयों के आने और इंग्लैंड में बसने का विशेष प्रावधान होगा। अगर ऐसा हुआ तो एशिया के बाकी मुल्क, जिनकी भी इंग्लैंड में खासी उपस्थिति है और इंग्लैंड के विकास में जिनका योगदान किसी से कम नहीं है, क्या वे सब कैमरन को चैन से रहने देंगे?
नए सांसदों में दस पाकिस्तानी मूल के हैं, तीन बांग्लादेश, और एक श्रीलंकाई मूल के हैं। जीते सांसदों में दो भारतीय मूल के हैं। अमनदीप सिंह भोगल पहले आइरिश सिख हैं, जिन्होंने उत्तरी आयरलैंड से चुनाव जीता है, तो इन्फोसिस वाले नारायणमूर्ति के दामाद ऋषि सुनाक ने रिचमंड से चुनाव जीता है। इन सांसदों को समेट कर रखना हो तो आव्रजन कानून को खासा लचीला बनाना पड़ेगा और तब स्थानीय और बाहर वालों के हितों का टकराव कैमरन का सिरदर्द बनेगा। इंग्लैंड में बेरोजगारी का बैलून फूलता जा रहा है।
मूल समस्याओं की तरफ से लोगों का ध्यान हटाने का सबसे आसान तरीका है कि देश में उत्सव का माहौल बनाया जाए! हमारे प्रधानमंत्री ऐसे उत्सवी माहौल के निष्णात हैं। कैमरन चाहें तो अपने इन ‘खास दोस्त’ नरेंद्र मोदी को अपनी मदद में बुला सकते हैं। उन्होंने इसका संकेत भी दिया है कि नई सरकार के पहले खास मेहमान, उनके ‘खास दोस्त’ ही होंगे। इंग्लैंडवासी भारतीयों की तरफ से इसकी मांग भी है। तो मौका भी है और दस्तूर भी! अमेरिका की तरह इंग्लैंड में रहने वाले सारे भारतीयों को जुटा कर एक बड़ा तमाशा तो किया ही जा सकता है। लेकिन सवाल फिर वहीं पहुंचता है कि क्या तमाशों से देश चलता है? मोदी भी और कैमरन भी अपनी-अपनी तरह से इसे समझ रहे हैं और दोनों मुल्कों के लोग भी इसे देख रहे हैं।
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